Thursday, July 23, 2020

Bleeding nose, नकसीर

If blood falls from the nose ……

 1. If blood falls from the nose, add 2-3 drops of green coriander or fresh soft coach (durva) to the nose.  This will stop bleeding from the nose.

 2. Bleeding stops by pouring 3 drops of mint juice into the nose.

 3. Feeding a few drops of Fitkari / White Alum water into the nose stops bleeding from the nose.

 4.  Mixing 2 to 10 grams of sugar candy in the juice of 10 to 50 ml of green amla/
Indian gooseberry is also beneficial in chronic hemorrhage.

Saturday, July 11, 2020

Guru mahima

1) गुरु ब्रह्मा गुरुर बिष्णु,
     गुरु देवो महेश्वरः।
     गुरु साक्षात परा ब्रह्मा,
     तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु ब्रह्मा, विष्णु और शिव के वास्तविक प्रतिनिधि है। वह श्रृष्टि करता है, अज्ञानता और मूढ़ के नाश कर ज्ञान फैलाता है मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

2) अखंड मंडलाकारं,
    व्याप्तं येणं  चराचरम येना।
    तत्पदं दर्शितं येना,
    तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु सर्वोच्च शक्ति के सम्बन्ध में मार्ग निर्देशक है। जो निर्जीव और सजीवो को विश्व में व्यबस्थित करता है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

3) अग्न्याना तिमिरान्धस्य,
    ग्न्याना अंजना शलाकया।
    चक्षुहु उन्मीलितम येणं,
    तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु अन्धकार से (कुकीर्ति ) से बचाता है। परम जिज्ञासा के प्रति चेतना रूपी ज्ञान को बाम की तरह लगता है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

4) स्थावरं जंगमं व्याप्तं,
    यत्किंचित सचरा चरम।
    तत्पदं दर्शितं येना,
    तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु वे है जो सबो को ज्ञान रूपी प्रकाश दे सकते है। जो जाग्रति लाते है, उन सबो में जो जाग्रत, स्वप्ना और सुषुप्ति अवस्था में रहते है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

५) चिन्मयम व्यापी यत्सर्वं,
      त्रैलोक्य सचरा चरम।
      तत्पदं दर्शितं येना,
      तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- धर्म गुरु जो एकल दैविक अस्तित्वा के बारे में निर्देश देता है, साथ ही साथ जो सक्रिय है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

6) सर्व श्रुति शिरोरतना,
    विराजिता पदाम्बुजः।
    वेदान्ताम्बुजा सूर्यो यह,
    तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु जो श्रुति के सागर है, ज्ञान के सूर्य है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।          
                                     
7) चैतान्याह शाश्वतः शांथो,
     व्योमातीतो निरंजनः।
     बिंदु नादा कलातीतहा,
     तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- जिसका परिवर्तन न हो, जो सर्व व्याप्त हो। शांति की जिज्ञासु , जिसमे एक विम्ब हो, जो अन्तरिक्ष से बहार है, जिनका दृष्टिकोण हमेशा आनंदित  करने वाले है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।         

8) ग्न्याना शक्ति समारूदः,
     तत्व माला प्रदानेय्ना।
     भुक्ति मुक्ति प्रदानेय्ना,
     तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- जो ज्ञान के सागर है, जो हमेशा योगी रूप में रहते है। ईश्वरीय सिन्धांत के ज्ञान से सजे होते है। जो हमें चुराकरण (मुंडन) संस्कार से दीक्षित बनाते है। मै ऐसे  गुरु को प्रणाम करता हूँ।        

9) अनेक जन्मा संप्राप्ता,
     कर्म बंधा विदाहिने।
     आत्मा ग्न्याना प्रदानेय्ना,
     तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- जो मुझे बन्धनों से मुक्ति में सहायता करते है। जो हमें आत्म ज्ञान  के सम्बन्ध में उपदेशित करते है। मै ऐसे  गुरु को प्रणाम करता हूँ।

10) शोषणं भाव सिन्धोस्चा,
       ग्न्यापनाम सारसम्पदाहा।
       गुरोर पादोदकं सम्यक,
       तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- जो, जीवन रूपी सागर को पार करने में सहायता करते है, जो हमें दैवीय शक्ति के भेद को स्पस्ट करते है। मै उनके कदमो पर शीशी अर्पित करता हूँ। मै ऐसे  गुरु को प्रणाम करता हूँ।

11) न गुरोर अधिकम तत्वं,
        न गुरोर अधिकम तपः।
        तत्व ग्न्यानात परम नास्ति,
        तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु से बढ़ कर कोई सिन्धांत नहीं है। गुरु के ध्यान से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

12) मन्नाथान श्री जगनाथो,
        मद्गुरुहू श्री जगद गुरुहू।
        मध् आत्मा सर्व भूतात्मा,
        तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- विश्व के भगवान मेरे भगवान् है। विश्व के गुरु मेरे गुरु है। जो सबो में विद्यमान है। मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

13) गुरोरादी अनादिस्चा, 
        गुरुह परम दैवतं।
        गुरोह परतरं नास्ति,
        तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अर्थ:- गुरु का न आदि है और न अंत, दृश्य रूप में गुरु भगवान है। गुरु के बहार कुछ भी नहीं है, मै ऐसे गुरु को प्रणाम करता हूँ।

14) "ध्यानामूलम गुरुर मूर्थिही,    पूजामूलं गुरोह पदम्।
मंत्रमूलम गुरोर वाक्यं,
मोक्ष मूलम गुरु कृपा।।
अर्थ:- सबसे बेहतर ध्यान, गुरु का ध्यान करना है। सबसे बेहतर पूजा गुरु के चरणों की है। गुरु के शब्द मंत्र है। गुरु के कृपा मोक्ष के साधन है।

Friday, February 8, 2008

राहु भोज देने से शांत होता है |



राहु छाया ग्रह है, इसलिये यह किसी भी भौतिक दान से नही हल्का किया जा सकता है इससे शांति प्राप्त करने के लिये राहु को भोज देने से शांत होता है एक ऐसा भोज जो राहु वाले क्षेत्र में अपनी खुशबू फ़ैलाकर राहु से सम्बन्धित व्यक्ति जैसे: सफ़ाई कर्मचारी, शिक्षा से जुडे लोग, शराबी कबाबी लोग, गरीब बस्तियों मे रहने वाले व्यक्ति, आदि इस भोज में खिलाने के लिये पूडियां जो साइज में बडी होती है,राहु के वनस्पति घी और मंगल के लिये गुड का हलुआ, सब्जी के लिये शुक्र और शनि की युति जैसे छाछ के आलू,या छाछ की अरबी, का भोज कर दिया जाता है इस भोज में राहु को तृप्त करने के लिये जो ग्रह से सम्बन्धित कारक प्रयोग किये जाते है, उनके अन्दर गेहूँ जो सूर्य का कारक है, वनस्पति तेल जो स्वयं राहु का कारक है, गुड का हलुआ जो मंगल का कारक है, और सब्जी में छाछ और आलू शुक्र और शनि की कारक है, की सहायता लेकर राहु को खिला दिया जाता है


राहु यानी गरीब या नीची कास्ट के लोग खाना खाने के बाद तृप्त होकर आशीर्वाद देते है वह अद्र्श्य शक्ति के द्वारा जातक के जीवन में राहु की छाया को दूर करता है इसके अलावा राहु के अन्य उपायों में चांदी का उपयोग करना, घर में चांदी को दवाना अपने पास किसी न किसी तरह् से चांदी को रखना, सफ़ाई कर्मचारी को लाल मसूर की दाल का दान में देना, बीमार आदमी के बराबर के जौ या गेंहूं, पानी में बहाना या जनता मे खिलाना, पलंग के सिरहाने रात को सोते समय जौ रखना और सुबह उनको पक्षियों को खिलाना, सरकार या व्यापार के अन्दर कठिनाई के लिये जातक के वजन के बराबर कोयला या लकडी नदी में बहाना, या छाछ के आलू जनता में बांटना आदि काम किये जा सकते है


जीवन में राहु के लिये अठारह साल का समय दिया गया है और जो भी जातक के साथ जीवन का अच्छा या बुरा परिणाम राहु को देना है देता है


सरस्वती राह्उ की अधिष्ठात्री देवी है सीसा इसकी धातु है गोमेद इसका रत्न है जौ,सरसों मूली अरबी, रतालू, जिमीकन्द, मसाले, और वह पदार्थ जिनके अन्दर खुशबू अधिक दूरी तक फ़ैलती हो, राहु के मुख्य भोज्य पदार्थ है स्मृति और कल्पना करना, दूसरो को लडाना या चुगली करना और फ़िर होने वाले कारणो को देखकर मजा लेना, इसके गुण है बारूद, आसमानी बिजली, बिजली से चलने वाली मशीने, नीला रंग, शौचालय, कैरोसिन से जलने वाले दीपक या स्टोव, पैंट और पाजामा इसके भौतिक सामान है राहु सास,स्वसुर और अन्जानी रूहों का मालिक है

Saturday, January 26, 2008

7 संकल्प

रेजॅल्यूशॅन लें जरूर, लेकिन दिल से, क्योंकि ये राष्ट्रीय संकल्प हैं, जिन्हें पूरी ईमानदारी से अपनाना आपके और देश के उज्ज्वल भविष्य के लिए निहायत जरूरी है।

1. पर्यावरण संरक्षण : सीधे तौर पर यही कहना चाहता हूं कि अगर आप अच्छे माहौल में रहना चाहते हैं, तो पर्यावरण संरक्षण को अपनी जिम्मेदारी समझ इसके प्रति हमेशा कॉन्शियस रहें। ग्लोबल वॉर्मिग, ग्लेशियर्स का पिघलना, ओजोन की परत में छेद के आकार में हो रही वृद्धि आदि के कारण आने वाले समय में पृथ्वी पर जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए फ्रेंड्स आपको पर्यावरण संरक्षण की दिशा में गंभीरतापूर्वक कदम उठाने होंगे और इसके लिए आपको कुछ टिप्स अपनाने होंगे, जैसे-पॉलिथिन बैग का प्रयोग न करें, इधर-उधर गंदगी न फैलाएं और पेड-पौधे जरूर लगाएं इत्यादि।
2. जल संरक्षण : यह भी पर्यावरण से ही जुडा है, लेकिन अपने आप में यह एक बहुत बडा मुद्दा है। आप इसके लिए कुछ छोटे-छोटे टिप्स अपनाकर काफी पानी बचा सकते हैं। मसलन, पेस्ट करने वक्त रनिंग वॉटर का प्रयोग न करें, नहाते समय रोजाना बाथ-टब, शॉवर का प्रयोग न करें आदि।
साथ ही, आप पानी की इंपॉर्टेस को लेकर अपने पैरेंट्स को भी एजुकेट करें। मसलन, घर की रसोई से निकलने वाले ऑर्गेनिक वेस्ट वाले वॉटर को गार्डनिंग में प्रयोग करें, ताकि सिंचाई भी हो जाए और पानी भी बर्बाद न हो। वॉटर हार्वेस्टिंग के बारे में लोगों को जागरूक करें, क्योंकि इसके माध्यम से बहुत-सा पानी वेस्ट होने से बच जाता है।

3. स्वस्थ समाज : याद रखें कि द चाइल्ड इज फादर ऑफ द मैन, मतलब साफ है कि आप बच्चे ही कल की सोसाइटी के निर्माता हैं, इसलिए भविष्य के समाज का स्वरूप आप पर ही निर्भर है।
इस बारे में एक उदाहरण पेश है :
एक बार एक बच्चा वर्ल्ड मैप पजल सॉल्व कर रहा था। इस पजल में मैप के बहुत सारे टुकडे थे और उनके पीछे एक बच्चे की तस्वीर बनी हुई थी। उस बच्चे ने वर्ल्ड मैप जोडने के लिए टुकडों के पीछे बनी बच्चे की आकृति जोडना शुरू किया और कुछ ही समय में सही आकृति बन गई। जब उसने उस आकृति को पलटा, तो पाया कि दुनिया का नक्शा अपने आप बन गया। इस लघु कथा को बताने का तात्पर्य यही है कि अगर आप शुरू से सही दिशा में सच्चे मन से कार्य करें, तो दुनिया भी अपने आप सही तरीके से चलती रहेगी।
4. सुशिक्षित समाज : एजुकेशन समाज के लिए बहुत जरूरी है, क्योंकि शिक्षा ही सही-गलत का ज्ञान देती है। चूंकि आप लोग ही आने वाले समय में समाज के कर्णधार हैं, इसलिए अगर आप एजुकेटेड होंगे, तो सोसाइटी अपने आप एजुकेटेड हो जाएगी।
5. ई-लर्निग : आज के समय में कम्प्यूटर एजुकेशन तरक्की के लिए बहुत जरूरी है। आप की जेनरेशन तो वैसे ही टेक्नोसेवी जेन कहलाती है। वैसे, टेक्नोलॉजी के बेनिफिट्स की बात तो ठीक है, पर आप इसके निगॅटिव एस्पेक्ट्स में कभी न फंसें।
6. मैनर्स ऐंड एटिकेट्स : आपके लिए बहुत जरूरी है कि आप इस एज में ही अच्छे मैनर्स और एटिकेट्स सीख लें, क्योंकि ये अच्छे मैनर्स व एटिकेट्स यदि एक बार आपकी आदत में शुमार जाए, तो फिर ये न केवल जीवनभर आपसे जुडे रहेंगे, बल्कि सही-गलत की पहचान करने में भी मददगार साबित होंगे।
मेरा सुझाव है कि आप थैंक-यू, सॉरी जैसे शब्दों को अपनी भाषा-शैली में शामिल कीजिए और याद रखिए कि सभी इनसान बराबर होते हैं, इसलिए आज से जब भी आप रिक्शे से कहीं जाएं, तो उससे उतरने के बाद रिक्शे वाले को थैंक-यू कहना मत भूलें और हां, स्कूल ले जाने वाले ऑटोरिक्शा वाले को उनका नाम न लेकर, उन्हें अंकल या भइया कहकर पुकारें।
कुछ छोटी-छोटी बातें, जैसे-कुर्सी उठाते समय आवाज न करना, किसी भी चीज का इस्तेमाल करने के बाद उसके नियत स्थान पर उसे वापस रखना, खाना चबाते समय आवाज न करना, बडे लोगों या किसी जानकार से कहीं भी मिलने पर उन्हें हमेशा ग्रीट करना इत्यादि बातों पर वर्क-आउट कर आप सही मायने में एक नोबल परसन बन सकेंगे।

7. एटिटयूड/बिहेवियर : आल्वेज बी पॉजिटिव ऐंड थिंक ऑप्टिमिस्टिक, क्योंकि सक्सेसफुल लाइफ का यही फंडा है। इसके लिए आप मोटिवेशनल आर्टिकल्स, मोटिवेशनल्स गुरु जैसे शिव खेडा आदि की किताबें जरूर पढें। याद रखिए कि आप जो पढते हैं, हो सकता है कि वे तुरंत आपके काम न आएं, पर जीवन में आगे यह बहुत काम आता है। दरअसल ऐसा करने से आपको जीवन में चुनौतियों और हार का सामना कैसे किया जाए, इसका भी ज्ञान हो जाता है।

Tuesday, January 15, 2008

मकर संक्रांति का वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक महत्व




मकर संक्रांति किसे कहते हैं, इसका भौगोलिक, सांस्कृतिक अथवा आध्यात्मिक महत्व क्या है, इत्यादि प्रश्नों का समाधान ज्योतिषशास्त्र के सिद्धांत ग्रंथों में विस्तार से प्राप्त होता है। सृष्टि के आरंभ में परम पुरुष नारायण अपनी योगमाया से प्रकृति में प्रवेश कर सर्वप्रथम जलमयी सृष्टि में कारणवारि का आधान करते है, जिसे वेदों ने हिरण्यगर्भ कहा है। सर्वप्रथम होने के कारण आदित्य तथा इन्हीं आदित्य से चराचर जीवों की उत्पत्ति होने के कारण इन्हें सूर्य कहा गया है। सूर्य से सोम रूप चंद्रमा की उत्पत्ति, पुन: उसके तेज से पृथ्वी, पृथ्वी से मंगल, सोम से बुध,आकाश से बृहस्पति, जल से शुक्र तथा वायु से शनि को उत्पन्न करके, ब्रह्म ने मन:कल्पित वृत्त को बारह राशियों तथा सत्ताइस नक्षत्रों में विभक्त किया। इसके पश्चात् श्रेष्ठ, मध्यम और अधम स्रोतों से स8व,रज, तम विभेदात्मक प्रकृति का निर्माण करके देवता, मनुष्य, राक्षस आदि चराचर विश्व की रचना की, गुण और कर्म के अनुसार सृष्टि रचकर देशकाल का विभाग किया। उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उसमें समस्त लोक स्थापित किए। इसी ब्रह्माण्ड की परिधि को आकाश की कक्षा कहते है। इसके भीतर नक्षत्र, राशियां, ग्रह तथा उपग्रह आदि भ्रमण करते रहते है। इसमें समस्त सिद्ध, विद्याधर, यक्ष, गंधर्व, चारण, राक्षस एवं असंख्य प्राणी सदैव भ्रमण करते रहते है। इसी ब्रह्माण्ड के मध्य में यह पृथ्वी ब्रह्म की धारणात्मिकाशक्ति के बल पर शून्य में स्थित होकर सतत भ्रमणशील है। इस पृथ्वी के मध्य को सुमेरु कहते है। समेरु के ऊपर की ओर इन्द्रादि देवता तथा असुर स्थित हैं तथा इसके चारों ओर महासागर पृथ्वी की मेखला की तरह स्थित है। यद्यपि पृथ्वी की गति से राशियों में परिवर्तन दिखाई देता है तथापि लोक में उसे उपचार मात्र से सूर्य का संक्रमण कहा जाता है। जब सूर्य विषुवत वृत्त पर आता है तब इन स्थानों के ठीक ऊपर होता है। इसी सुमेरु के दोनों ओर उत्तरी एवं दक्षिणी धु्रव स्थित है। सूर्य जब देव भाग में अर्थात् उत्तरी गोलार्ध में रहता है तब मेष के आदि स्थान में देवताओं को उसका प्रथम दर्शन होता है और जब दक्षिणी गोलार्ध में रहता है तब तुला के आदि में वह असुरों को दिखाई पड़ता है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जब वर्तमान राशि का त्याग करके सूर्य अगली राशि में प्रवेश करते है तो उसी काल को संक्रांति कहते है। अतएव संक्रांति प्रत्येक मास होती है। राशियां कुल बारह है, अत: सूर्य की संक्रांति भी बारह होती है। इन संक्रांतियों को ऋषियों ने चार भागों में विभक्त किया है-अयनी, विषुवी, षडशीतिमुखी और विष्णुपदी संक्रांति। जब सूर्य मिथुन राशि से कर्क राशि में तथा धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता तो उसे अयनी संक्रांति कहते है। इसी प्रकार मेष,तुला राशि पर सूर्य के संक्रमण को विषुवी संक्रांति, मिथुन, कन्या, धनु और मीन राशि पर सूर्य के संक्रमण को षडशीतिमुखी तथा वृष, सिंह, वृश्चिक एवं कुंभ राशियों पर सूर्य के संक्रमण को विष्णुपदी संक्रांति की संज्ञा दी गई है। अब प्रश्न यह उठता है कि संक्रांतियां तो बारह होती है फिर मकर संक्रांति को ही इतना महत्व क्यों दिया जाता है? इसका कारण यह है कि भारतवर्ष में प्राचीन काल से वर्षारंभ का दिन मकर संक्रांति से ही माना गया था। वर्षारंभ के साथ ही हजारों वर्ष की पुरानी भारतीय संस्कृति का इतिहास भी इस मकर संक्रांति से जुड़ा हुआ है। वैदिक काल में जब राशियां अज्ञात थीं, दिनों के नाम भी नहीं रखे गए थे, दिनों के संबंध में निश्चित किए जाने वाले वर्ष के राजा और मंत्री भी नहीं होते थे, उस समय हमारे ऋषियों, महर्षियों ने नक्षत्रों से ही ग्रहों के शुभाशुभ फलों की गणना की थी। उन दिनों भारतीयों के संपूर्ण व्यवहार तिथियों पर ही आश्रित थे। आज हम जिसे मकर संक्रांति कहते है, उस समय उसे युग या वर्ष का आदि कहा जाता था। आज से लगभग पैंतीस सौ वर्ष पूर्व वेदांगज्योतिष में महर्षि लगध ने कहा कि जब चन्द्रमा और सूर्य आकाश में एक साथ धनिष्ठा नक्षत्र पर होते है तब युग या संवत्सर का आदि माघ मास तथा उत्तरायण का आरंभ होता है। धनिष्ठा नक्षत्र पर सूर्य 6/7 फरवरी को होता है, तथा माघ की अमावस्या को चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्र पर रहता है। यह भी तिथियों और नक्षत्रों के संबंध से स्पष्ट है। फिर उत्तरायण का आरम्भ भी उसी नक्षत्र पर हो, तो सौरमाघमास का आरम्भ भी निश्चित ही उसी दिन होगा।

यह बात वेदांग ज्योतिष में वर्णित माघ की अमावस्या को धनिष्ठा नक्षत्र पर होने वाले उत्तरायण में ही सत्य होगी, क्योंकि इसी स्थिति में सौर और चान्द्र दोनों मासों से माघ का सम्बन्ध शास्त्रसम्मत होगा। वैदिक साहित्य में उत्तरायण दिन अत्यंत पवित्र माना गया है। उत्तरायण का अर्थ है-उत्तर की ओर चलना। जब सूर्य क्षितिज वृत्त में ही अपनी दक्षिणी सीमा समाप्त करके, उत्तर की ओर बढ़ने लगता है तो उसे हम उत्तरायण कहते हैं। इसी प्रकार क्षितिज वृत्त में ही जब सूर्य उत्तर जाने की चरम सीमा पर पहुंच कर दक्षिण की ओर बढ़ने लगता है, तो उसे हम दक्षिणायन कहते है। जब सूर्य उत्तरायण के होते है तब दिन बड़ा होने लगता है और जब दक्षिणायन में प्रवेश करते है तब दिन छोटा होने लगता है। ये अयन छह-छह महीने के अंतर पर होते है। उत्तरायण में दिन की अधिकता के कारण सूर्य का प्रकाश पृथ्वीवासियों को अधिक प्राप्त होता है। वृद्धि को शुभ मानने की परम्परा भारतीयों की सदैव से रही है। कृष्णपक्ष एवं शुक्लपक्ष दोनों में चंद्रमा का प्रकाश पृथ्वीवासियों को समान रूप से प्राप्त होता है, तथापि शुक्लपक्ष को वन्द्य माना गया है। इसका कारण यह है कि शुक्लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ता हुआ पूर्णता की ओर जाता है और पूर्ण प्रकाश देता है। ठीक यही बात अयन के संदर्भ में भी प्रत्यक्ष है। उत्तरायण से दिन बढ़ना प्रारम्भ होकर अन्त में पूर्णता को प्राप्त होता है, जबकि दक्षिणायन में घटता हुआ अत्यंत छोटा हो जाता है।

अत: प्रकाश की न्यूनाधिकता के कारण ही दक्षिणायन की अपेक्षा उत्तरायन को अधिक महत्व दिया गया है। सायन गणना के अनुसार वर्तमान में 22 दिसंबर को सूर्य उत्तरायन और 22 जून को दक्षिणायन होता है, जबकि निरयन गणना के अनुसार सूर्य 14/15 जनवरी को उत्तरायन तथा 16 जुलाई को दक्षिणायन होता है। किंतु सायन गणना ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। जिसके अनुसार 22 दिसंबर को सूर्य क्षितिज वृत्त में अपने दक्षिण जाने की सीमा समाप्त करके उत्तर की ओर बढ़ना आरंभ करता है और 22 जून को अपने उत्तर जाने की सीमा समाप्त करके दक्षिण की ओर बढ़ना आरम्भ करता है। इसलिए आज का उत्तरायण 22 दिसंबर से आरम्भ होकर 22 जून को समाप्त होता है। किंतु धर्मशास्त्र निरयन परम्परा को ही मह8व देते है और उसी के अनुसार सभी संक्रान्तियों के पुण्य काल का निर्धारण करते है। अतएव प्रत्येक सनातनधर्मी धर्मशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र के संयुक्त आदेशों का पालन ही अपना प्रधान क‌र्त्तव्य मानता है। मकर संक्रान्ति का महत्व न केवल भारतवर्ष में अपितु विश्व के अन्यान्य देशों में खिचड़ी रूप में प्रसिद्ध है। इस दिन लोग खाद्यान्न विशेषकर तिल, गुड़, मूंग, खिचड़ी आदि पदार्थो का सेवन करते है। इस समय अत्यधिक शीत भारतवर्ष में पड़ती है। तिल के सेवन से शीत से रक्षा होती है। अतएव तिल का महत्व अधिक दिया गया है। तिलस्नायी तिलोद्व‌र्त्ती तिलहोमी तिलोदकी। तिलभुक् तिलदाता च षट्तिला: पापनाशना:॥

अर्थात् तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल के तेल द्वारा शरीर में मालिश, तिल से ही यज्ञ में आहुति, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का भोजन इनके प्रयोग से मकर संक्रांति का पुण्य फल प्राप्त होता है और पाप नष्ट हो जाते है। इस समय बहती हुई नदी में स्नान पूर्णकारी होता है। ऐसी मान्यता है कि नदी के जल में स्नान से सम्पूर्ण पाप तो नष्ट होते है साथ ही धन, वैभव और रूप, सौन्दर्य आदि की वृद्धि हो जाती है। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में वर्णन है कि सूर्य के संक्रमण काल में जो मनुष्य स्नान नही करता वह सात जन्मों तक रोगी, निर्धन तथा दु:ख भोगता रहता है। इस दिन कंबल का दान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।

मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं कर्म करता है

बनावटी जीवन निराशा की जननी है। अपनी शक्ति में विश्वास रखने के साथ-साथ अपनी आकांक्षा को ऊंचा रखना अच्छा है,पर उसके लिए अपनी शक्ति का आकलन करना और उसका उपयोग करना सीखना भी आवश्यक है।

व्यक्ति का अनुभव ही उसका सबसे बडा गुरु है और श्रेष्ठ विचार सबसे अधिक मूल्यवान है। यह व्यक्ति के हाथ में है कि वह अपनी सादगी का आदर्श प्रस्थापित करे और उससे अपने विचारों की दुनिया को अनुप्राणित करे। विचार भावनाओं का भोजन है। हमारे प्राचीन भारत का जीवन-दर्शन ही सादे जीवन पर आधारित रहा है। तत्कालीन भारत के ऋषि वनों और आश्रमों में रहते थे। वे वाह्य जीवन की सुविधाओं को अधिक प्रधानतानहीं देते थे और परहित को वह अपना धर्म मानते थे। जीवन को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उसका आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार का विकास हो। जीवन की सादगी हमारी भारतीय संस्कृति की जीवन-पद्धति का सौंदर्य है।

यह सौंदर्य चरित्रवान व्यक्ति के व्यक्तित्व से प्रस्फुटित होता रहता है। उस व्यक्ति का आंतरिक सौंदर्य आंखों को नहीं, सबकी समझ को भाता है। सात्विक जीवन का सौंदर्य अस्थायी नहीं होता, वह सतत प्रवाहित होता होने वाला है। यदि हम बुराई और असत्य से अपना ध्यान हटाकर उसे सत्य और सौंदर्य पर केंद्रित कर सकें तो हमारा जीवन कहीं अधिक सुखमय एवं जनकल्याणकारी होगा। मनुष्य जिस उच्चतम स्थान तक पहुंचना चाहता हैं, उसका चित्र अपनी आंखों के सामने उसे स्पष्ट करना होगा और विचार, लक्ष्य,इच्छा और आकांक्षाओं को उसकी प्राप्ति में लगाना होगा। मनुष्य का निर्माण भाग्य नहीं, उसकी कर्म शक्ति करती है। कर्म ही मनुष्य की आत्मा है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अंदर नवीन चिंतन का संचार करते रहना चाहिए।

मनुष्य अपना मित्र भी है और शत्रु भी। वह अपने उत्थान और पतन का कारण स्वयं ही है। मानव जीवन के साथ ही उसके उद्देश्यों का भी जन्म होता है। वह अपने विचारों के विकास के लिए निरंतर संघर्ष करता रहता है। मनुष्य के पास साहस का भंडार है। साहस होते हुए भी यदि मनुष्य का विकास स्थिर नहीं हो पाता अथवा उसकी सोच नकारात्मक होती है तो वह अपनी आत्मिक शक्ति का सही उपयोग नहीं कर पाता है। जब मनुष्य को विश्वास हो जाता है कि उसकी शक्ति अनंत है। तब उसे अपने साहस की विशालता के कारण बडे-बडे काम साधारण जान पडते हैं। मनुष्य को अपना ध्येय ऊंचा रखना चाहिए और तन्मयता के साथ बुद्धिमतापूर्वककाम करना चाहिए।

उत्तम आचरण के लिए निरंतर प्रयास जरूरी

सभ्य समाज में स्त्री और पुरुष के बीच के संबंधों को बडी सतर्कता से परिभाषित किया गया है। इसके अनुसार समान आयु की अपरिचित महिला बहन के समान, छोटी पुत्री के समान और बडी महिला को माता के समान माना जाता है। ये सुसंस्कृत विचार शिक्षा के ही परिणाम हैं।

पंडित जी ने कहा कि शास्त्रों में दी गई इस मान्यता के अनुसार आचरण स्वत: नहीं बन जाता है अपितु इसके लिए निरंतर प्रयास करना पडता है। जिस समाज में बच्चों के अंदर उत्तम संस्कारों के डालने का प्रयास नहंी किया जाता और उचित शिक्षा नही दी जाती, वहां समाज असभ्य,असंस्कृत और जंगली हो जाता है। भारत में प्राचीन काल से इसी परिभाषा के अनुसार आचरण किया जाता है। पर अब धीरे-धीरे पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण लोगों का आचरण बिगडने लगा है। लोगों के आचरण में परिवर्तन आने के कारण समाज का ढांचा चरमराने लगा है। जहां एक ओर नारी को समानता दिए जाने की बातें की जा रही हैं और उसे आगे बढने के अवसर प्रदान करने के प्रयास किए जा रहे हैं वहीं नारी का जीवन पहले की अपेक्षा अधिक असुरक्षित होता जा रहा है। पश्चिमी सभ्यता के पीछे अंधी दौड के कारण लोगों के मानसिकता विकृत होने लगी हैं। इसके कारण अपराधों की संख्या बढ रही है। विशेष रूप से यौन अपराधों में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हो रही है। एक समय था जब भारत पर राज्य करने वाले राजा अश्वपति ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की थी कि उनके राज्य में न तो कोई चोर है और न ही कोई व्यभिचारी पुरुष है। जब पुरुष व्यभिचारी नहीं है तो व्यभिचारिणी स्त्री तो हो ही नहीं सकती। पर आज उसी राजा अश्वपति के देश में व्यभिचार के हजारों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं।

भारत वासियों को पश्चिमी देशों का अंधानुकरण छोड अपने पूर्वजों के आचरण का अनुकरण करके देश को दोबारा ऊंचाइयों की ओर ले जाने के प्रयास करना चाहिए। तब ही भारत फिर से जगद्गुरु कहला सकेगा।